दिल्ली में बहती यमुना के किनारे एक समंदर ठहरा रहता है। बेघर लोगों की भीड़ का ऐसा समंदर जिसका विस्तार आईटीओ के पुल से लेकर सलीमगढ़ के किले तक फैला हुआ है। निगमबोध घाट के पास ये समंदर कुछ ज्यादा गहरा हो जाता है क्योंकि करीब सात से आठ हजार बेघर लोग सिर्फ इसी छोटे-से इलाके में रहते हैं।
इन लोगों के लिए कई रैन बसेरे भी यहां बनाए गए हैं। लेकिन लोग इतने ज्यादा हैं और रैन बसेरे इतने कम कि बमुश्किल 5% लोगों को ही इनमें रात गुजारना नसीब हो पाता है। और अब तो इन पांच प्रतिशत लोगों से भी यह सुख छिन चुका है क्योंकि बीते शनिवार इन रैन बसेरों को गुस्साई भीड़ ने आग के हवाले कर दिया।
इस बसावट के जो सबसे ‘संपन्न’ लोग हैं उन्होंने अब यहां अपनी झुग्गियां बना कर एक अदद छत का इंतजाम कर लिया है। जो इनसे कुछ कम संपन्न हैं, उनके लिए यहां से गुजरती पानी की मोटी पाइप लाइन छत का काम करती है। और जिन्हें ये भी नसीब नहीं, उनके लिए खुला आसमान ही छत है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने यमुना में खड़े मेट्रो पुल के पिलरों को अपना आशियाना बना लिया है।
जलते हुए शवों की गंध और यमूना के गंदे पानी की सड़ांध के बीच रहते हैं बेघर
हवा जब यहां पश्चिम की तरफ बहती है तो बसावट की फिजाओं में निगमबोध घाट पर जलते हुए इंसानी शरीरों की गंध तैरने लगती है। इसके उलट अगर हवा पूर्व को बहती है तो इसमें यमुना के गंधाते पानी और नदी किनारे सड़ते हुए जानवरों के शवों की गंध शामिल होती है। मरे हुए इन जानवरों को नोचते चील-कौओं का शोर और पास में ही स्थित पॉवर स्टेशन के उठती एक सतत भिनभिनाहट इस बसावट को चौबीसों घण्टे गुंजायमान रखते हैं।
जब काम नहीं मिलता तो पेट भरने के लिए ये बेघर लोग शमशान घाट से गेहूं-चावल ले आते हैं
इस माहौल में रहने वाले ये हजारों लोग अलग-अलग प्रदेश, धर्म और जातियों के हैं। सिर्फ गरीबी ही ऐसी एक मात्र समानता है जो इन सबको एक सूत्र में बांधती है। इनमें से ज्यादातर लोग कबाड़ इकट्ठा करने का काम करते हैं, कुछ दिहाड़ी-मजदूरी करते हैं और कुछ ब्याह-बारातों को रोशन करने वाली लाइट उठाने या बड़ी-बड़ी पार्टियों में जूठे बर्तन धोने का काम करते हैं। जब इनमें से कोई भी काम नसीब नहीं होता तो ये लोग पेट भरने को निगमबोध घाट से वो गेहूं-चावल उठा लाते हैं जो अंतिम क्रिया में चढ़ाने के बाद लोग वहां छोड़ जाते हैं।

ज्यादातर लोगों को नशे की लत है
इन लोगों से बात करने पर आप यह भी पाते हैं कि इनमें से अधिकतर को नशे की लत है। करीब दस साल पहले सीतापुर से यहां आए 26 साल के आकाश खुद ही आपको बताते हैं कि ‘मैं नशे की लत के चलते घर से भागा था और तब से यहीं हूं। कबाड़ बीन कर जो कमाता हूंं उसमें से ज्यादा तो शराब या सुल्फा खरीदने में चला जाता है। नशा रोज ही करता हूं। आजकल शराब नहीं मिल रही तो पत्ती (भांग) रगड़ के काम चला रहा हूं।’ इतनी ही ईमानदारी से अपने नशे की लत को स्वीकारने वाले यहां दर्जनों अन्य लोग भी आपको मिल जाते हैं।
आप कुछ और लोगों से बात करते हैं तो समझते हैं कि इनमें से किसी की भी सरकार पर कोई निर्भरता नहीं है। सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर ये लोग सिर्फ दो ही तरफ के लोगों को जानते हैं। एक पुलिस वाले और दूसरे रैन बसेरों का प्रशासन संभालने वाले। दोनों ही तरह के लोगों का इन्होंने सिर्फ क्रूर चेहरा ही देखा है। इसमें से पुलिस का क्रूर चेहरा तो इन्हें स्वीकार्य भी है लेकिन रैन बसेरे के लोगों का सख्ती दिखाना इन्हें पसंद नहीं। यहीं से उस पृष्ठभूमि की शुरुआत होती है जिसके चलते बीते शनिवार रैन बसेरों में आगजनी हुई।
बेघरों की रैन बसेरा चलाने वाले लोगों से लड़ाई होती रहती है
रैन बसेरों का प्रशासन संभालने वालों को ये लोग ‘सेंटर वाले’ के नाम से बुलाते हैं। इनकी शिकायत है कि सेंटर वाले इनके साथ मार-पीट करते हैं, गालियं देते हैं और वहां बेघर लोगों के लिए उपलब्ध संसाधनों को इन तक नहीं पहुंचने देते। गजरौला से यहां आकर रहने वाले अजय कहते हैं, ‘सेंटर वालों में तीन-चार लोग बहुत बुरे हैं। वो हमें वहां से पानी भी नहीं पीने देते जबकि खुद उस पानी से हाथ-मुंह तक धोते हैं। वहां गर्मियों में जो कूलर रहता है अगर हम कभी उसके पास जाकर बैठें तो हमें मारते हैं। कई बार तो उन्होंने सोते हुए लोगों को डंडा मारा है। मेरे साथी के तो इतनी तेज डंडा मारा था कि उसकी हड्डी दिखने लगी थी।’
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए जब अजय आपसे ये सवाल करते हैं कि ‘मारने का काम तो पुलिस का है न साहब। ये सेंटर वाले क्यों हमें मारते हैं?’ तो आप ये भी जवाब नहीं दे पाते कि ‘नहीं, मारने का काम पुलिस का भी नहीं है।’ क्योंकि आप जानते हैं कि अजय के अनुभव आपके इस जवाब पर कभी विश्वास नहीं कर सकेंगे।
दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड, ‘सेफ अप्रोच’ नाम के एक एनजीओ के साथ मिलकर रैन बसेरे चलाता है
ये लोग जिन्हें ‘सेंटर वाले’ कह रहे हैं वे असल में ‘सेफ अप्रोच’ नाम के एक एनजीओ के कर्मचारी हैं। दिल्ली में रैन बसेरों की जिम्मेदारी असल में ड़ूसिब यानी ‘दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड’ की होती है। ड़ूसिब ये काम कुछ एनजीओ के माध्यम से करता है और ‘सेफ अप्रोच’ ऐसा ही एक एनजीओ है।
यहां मौजूद लगभग सभी बेघर लोग आपको ये शिकायत करते मिलते हैं कि सेंटर वाले उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव करते हैं। बीते छह साल से यहां रह रहे असलम कहते हैं, ‘सेंटर वाले सिर्फ अपने जानने वाले लोगों को ही रैन बसेरों में रहने देते हैं। हमें वहां घुसने भी नहीं देते और जब बाहर से खाना आता है तो भी ठीक से नहीं बांटते।’
लॉकडाउन के बाद एक-एक रैन बसेरों में 8 से 9 हजार लोगों को खाना बन रहा
जब कोरोना के चलते देशव्यापी लॉकडाउन हुआ तो बेघर लोगों को खाना खिलाने की जिम्मेदारी रैन बसेरों को दी गई और तब इन लोगों के लिए खाना खाने रैन बसेरे पर आना मजबूरी हो गया। आठ-नौ हजार लोगों को प्रतिदिन दो वक्त खाना खिलाना रैन बसेरे वालों के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं था। उनके पास सिर्फ 15 लोगों का स्टाफ था जो नागरिक सुरक्षा के चुनिंदा जवानों और दिल्ली पुलिस के उनसे भी कम जवानों की मौजूदगी में यह काम कर रहे थे। ऐसे में सुरक्षा व्यवस्था के बिगड़ने की आशंका लगातार बनी हुई थी जो शनिवार को सच हो गई।
रैन बसेरे के प्रशासन और इन बेघर लोगों के बीच छोटी-मोटी झड़प इस दौरान कई बार हुई। लेकिन शुक्रवार के दिन यह झड़प मार-पीट में बदल गई। इस मारपीट की शुरुआत कैसे हुई, इसके बारे में आपको दो अलग-अलग कहानियां सुनने को मिलती हैं। एक कहानी वो जो बेघर लोग आपको सुनाते हैं और दूसरी वो रैन बसेरे का प्रशासन बताता है।
'एक लड़का रैन बसेरे वालों से डरकर यमूना में कूद गया और मर गया'
आकाश नाम का लड़का सामने आता है और बताता है, ‘शुक्रवार के दिन खाना बांटते हुए सेंटर वालों की कुछ लोगों से झड़प हुई। उसके बाद करीब चार बजे वो लोग इधर से लड़के को पकड़ कर रैन बसेरे के अंदर ले गए और उसे उन्होंने बहुत मारा। वो किसी तरह खुद को छुड़ाकर वहां से भागा तो ये लोग उसके पीछे भागे। इस डर से वो यमुना में कूद गया। उसे इतना मारा गया था कि वो तैर भी नहीं पाया और डूब कर मर गया।’
रैन बसेरे वालों का कहना है- ‘वो लड़का यमुना में डूबा नहीं था, तैर कर दूसरी तरफ चला गया था'
इसी घटना का दूसरा वर्णन आपको राम नाम के लड़के से सुनने को मिलता है। राम उन लोगों में से है जो इन दिनों रैन बसेरे में लोगों के लिए खाना बना रहे हैं। राम कहते हैं, ‘शुक्रवार को चार बजे के करीब हम केले बांट रहे थे। तभी एक लड़के ने मेरे हाथ में चाकू मार दिया। हमारे साथी उसे पकड़ने लगे तो वो यमुना की तरफ दौड़ गया।’ राम की बात को आगे बढ़ाते हुए ‘सेफ अप्रोच’ के मैनेजर निशु त्रिपाठी कहते हैं, ‘वो लड़का यमुना में डूबा नहीं था, तैर कर दूसरी तरफ चला गया था। क्योंकि शुक्रवार शाम को ही पुलिस ने नदी के पूरे इलाके को छान मारा था, वो कहीं नहीं मिला था। तभी कुछ लोगों ने पुलिस को बताया भी था कि उन्होंने उस लड़के को नदी से दूसरी तरफ जाते देखा था।’
लोगों में गुस्सा, इनका कहना है- पुलिसवाले मामले को दबा रहे हैं
शुक्रवार को हुई इस घटना के बाद यहां के लोगों में भारी आक्रोश था। उनका कहना था कि उनके बीच का एक आदमी नदी में डूब गया है और सेंटर वालों से लेकर पुलिस तक इस मामले को दबा रही है और सिर्फ एक अफवाह बता रही है। यह आक्रोश अगले दिन तब कई गुना बढ़ गया जब यमुना से एक लाश बरामद हुई। ये लाश इन्हीं लोगों में से किसी ने नदी में देखी और इसे निकाला भी इन्हीं लोगों ने। इसके बाद गुस्साई भीड़ नहीं संभली। वो नदी से निकली लाश को लेकर रैन बसेरे की तरफ बढ़ी और उसने वहां पथराव करने के साथ ही रैन बसेरों में आग भी लगा डाली।
6 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ
इस मामले में अब एफआईआर दर्ज हो चुकी है। इसमें लड्डन, मुन्ना, भोपाल सिंह, निर्मल, सुभाष, अनिल और रोहित नाम के लोगों को आरोपी बनाया गया है और उन पर आईपीसी की धारा 147, 148, 149, 186, 188, 269, 270, 352, 436 के साथ ही एपिडेमिक डिजीज ऐक्ट के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया गया है। ये मुकदमा इन लोगों पर शनिवार को हुई हिंसा के लिए ही दर्ज किया गया है।
दूसरी तरफ जिस लड़के के डूब जाने का जिक्र हो रहा है, उसके साथ हुई मारपीट की कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई है। बल्कि प्रशासन ने अब तक ये भी नहीं माना है कि कोई मौत हुई है। दिल्ली पुलिस के अतिरिक्त जन सम्पर्क अधिकारी अनिल मित्तल के अनुसार, ‘चार-पांच लोग उस दिन यमुना में कूदे थे। इनमें से बाकी तो बाहर आ गए थे लेकिन एक आदमी वापस नहीं आया था। पुलिस ने गोताखोरों की मदद से उसे खोजा भी था लेकिन वो नहीं मिला।’
यमूना से एक शव मिला है, लेकिन वह उस लड़के का नहीं : पुलिस
अनिल मित्तल आगे कहते हैं, ‘एक अज्ञात शव यमुना से बरामद हुआ है लेकिन वो संभवतः किसी अन्य व्यक्ति का है क्योंकि वो उस जगह से कुछ दूर बरामद हुआ है।’ इस मामले में एक तरफ वे लोग हैं जो कहते हैं कि उनके एक साथी को मारा-पीटा गया जिसके चलते वो घबराकर भागा और यमुना में डूब गया। ये लोग यह भी कहते हैं कि बरामद हुई लाश उसकी मौत की पुष्टि करती है।दूसरी तरफ दिल्ली पुलिस है जिसके अधिकारी इतना तो मानते हैं कि कोई एक व्यक्ति नदी में कूदा और वापस नहीं आया, लेकिन उसके मरने की पुष्टि नहीं करते। तीसरी तरफ ड़ूसिब के सदस्य हैं जो ये तक नहीं मानते कि कोई नदी में कूदा भी था।
यमुना में युवक के कूदने की बात अफवाह : दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड
ड़ूसिब के प्रवक्ता विपिन राय कहते हैं, ‘किसी के यमुना में कूदने की बात अफवाह थी जिसके चलते शुक्रवार को हंगामा हुआ। फिर शनिवार को कहीं और से एक लाश मिली तो एक और अफवाह फैल गई कि ये लाश उसी की है जो कल कूदा था। इन अफवाहों के चलते ही सारा हंगामा हुआ।’
इन परस्पर विरोधाभासी दावों के बीच किसी भी एक पक्ष के दावों पर पूरी तरह यकीन करना मुश्किल है। लेकिन कुछ तथ्य जो एकदम स्पष्ट हैं वह बताते है कि यमुना में डूबने के बाद से एक व्यक्ति अब भी लापता है, यदि बरामद हुआ शव उस व्यक्ति का नहीं है तो संभवतः दो लोगों की मौत हो चुकी है। रैन बसेरों के जलने के कारण कई लोग यहां से भी बेघर हो चुके हैं, शनिवार की शाम से करीब इन सात हजार लोगों को खाना नहीं दिया गया है और बेघर लोगों की ये जमात तब से आसमान की चादर ओढ़े भूखे पेट ही सो रही है।